खुद कहीं खो गया हूँ ‘मैं’

जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते खुद कहीं खो गया हूँ ‘मैं’

बदलते मौसम की रिमझझिम बारिश में खुश होना अब भूल चुका हूँ ‘मैं’

अब तो मयखाने में भी खुशी को ढूंढना बंद कर चुका हूँ ‘मैं’

अपने शोक पूरे करने की कोशिश करना भी भूल गया हूँ ‘मैं’

दोस्तों की महफिल में गिले-शिकवे करना भी भूल चुका हूँ ‘मैं’

जमाने की रस्में पूरी करते-करते अब थक चुका हूँ ‘मैं’

गमे-जिंदगी में बाकी एक उम्मीद के उजियाले को क्या ढूंग पाउंगा ‘मैं’

दिल के तार किसी से जुड़ गए हैं, ये उसे क्या कभी बता पाउंगा ‘मैं’

छोडक़र दुनियादारी की चिंता क्या कभी मन की कर पाउंगा ‘मैं’


-मोहित






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