..राख में मिलेंगी बर्बाद-ए-इश्क की निशानियां
उसके मौहल्ले में अब मैं जाता नहीं,
दिल मेरा वहां अब लगता नहीं,
महफिलें सज़ाएंगे आज और कहीं,
क्या हुआ अगर नजरें दिदार होंगे नहीं,
सीने में मेरे दर्द कोई कम तो नहीं,
नशा भी शराब का मुझे अब होता नहीं,
क्योंकि उससे अब मिल जो पाता नहीं,
दर-दर भटकता रहता हूँ मैं यूं ही कहीं,
बात जो थी तेरे मौहल्ले में नहीं और कहीं,
चला आउँ या अपनी चिता बना लूं यहीं कहीं,
बना लूं तो तुम, राख मेरी देखने आना यहीं,
मेरे बर्बाद इश्क की निशांनिया मिलेंगी यहीं।।
-मोहित
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