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क्योंकि... बात है जरूरी

दिमाग कह रहा है ना, पर बात है जरूरी, दिल कह रहा है हां, उसे बताना है जरूरी, ऐ दिल तू लगने से पहले सुन तो लेता हमारी, क्या पता हम दिमाग से लडक़र व्यथा सुनाते तुम्हारी, दिमाग और इस दिल की जंग में, दिल पड़ रहा है भारी, दवा नहीं मिली, तो कहीं हो ना जाए दिल की बीमारी, पता है मुझे, मान ली दिल की बात तो पड़ेगा बहुत भारी, मयखाने में भी दिल को बहलाना पड़ रहा है मुझ पर भारी, जिसको कहना था कह दिया, अब है उसकी बारी।।  -मोहित   
जाना बेरूखी क्या चीज है....  जब दर्द हुआ तो जाना बेरूखी क्या चीज है, पीकर भी नहीं हुआ नशा तो जाना, किसी का हो जाना क्या चीज है, कुछ बातें कभी कही नहीं जाती, समझना ही काफी है कि क्या चीज है, अब कैसे कहूं, क्या करूं, बेचैनी बढ़ रही है पर वो अज़ीज है।  -मोहित मैं भी तन्हा, वो भी तन्हा चारों ओर है भीड़, फिर क्यूं हैं तन्हा, बाते हैं बहुत, मगर दिल है तन्हा, सब कुछ है मेरे पास, कहने को यहां, पर ढूंढने जाउं खुशी, तो मन है तन्हा, आधी गुजर चुकी ये जिंदगी, पर दिल रहा तन्हा, चाहा जो क्या मिल पाएगा कभी,  या यूं ही गुजर जाएगा जिदंगी का ये सफर मेरा तन्हा। -मोहित
  इतनी बेरूखी भी यूं ना दिखलाओ, दर्द-ए-दिल का हाल कभी सुनो या सुनाओ, गम-ए-जिदगी में हैं बहुत, यूं ना हम पर मुस्कुराओ, कट जाएगी यूं ही उम्र आप बस ख्यालों मेंं आते जाओ।  -मोहित

खुद कहीं खो गया हूँ ‘मैं’

जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते खुद कहीं खो गया हूँ ‘मैं’ बदलते मौसम की रिमझझिम बारिश में खुश होना अब भूल चुका हूँ ‘मैं’ अब तो मयखाने में भी खुशी को ढूंढना बंद कर चुका हूँ ‘मैं’ अपने शोक पूरे करने की कोशिश करना भी भूल गया हूँ ‘मैं’ दोस्तों की महफिल में गिले-शिकवे करना भी भूल चुका हूँ ‘मैं’ जमाने की रस्में पूरी करते-करते अब थक चुका हूँ ‘मैं’ गमे-जिंदगी में बाकी एक उम्मीद के उजियाले को क्या ढूंग पाउंगा ‘मैं’ दिल के तार किसी से जुड़ गए हैं, ये उसे क्या कभी बता पाउंगा ‘मैं’ छोडक़र दुनियादारी की चिंता क्या कभी मन की कर पाउंगा ‘मैं’ -मोहित